ख्वाँफ के सायें

सायें ख्वोफ के ये कहाँ ले चले हमे

हम तो हमारी ही जमी से परायें हो चले

क्या खोया हमने इन बंदुको के सायों में

दिनरात जल रहें धुँये और अंगारों में

सायां हि मानो डर बन गया हमारा

  पास से गुजरने वाला हर बम  हो

  या हो गोलियों की बौछार 

        आदत बन गई 

        खुन के छिंटों से हर दिवार रंग गई

    गली में कोई घर न बचा  जहाँ मौत कि दस्तक न हुँई

      बच्चा हो या  बुढाँ हर शक्स डरा हूँआ

       औरतो का तो  हाल बहोत ही बुरा हुँआ

  अभी तो वो जरा डट के खडी थी

  उम्मीद उसने भी अपने मन में भरी थी

पर्दा नशीन ही सही नये हौसले पायें थे

हाथ में उसने भी अब हथियार ऊँठायें थे

           अब न हौसला रहाँ ना उम्मीद कोई

           उजडी हुँई बस्तियों मे ं चिंखो की आवाज है

         भागता हर शक्स जिसे कही और जिने की आँस है

           बस्तियाँ और भी बस जायेंगी कँही ,

      बस एक जान बचाने की लगी ये प्यास है






 

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